मुस्लिम विधि के अंतर्गत पुरुष और स्त्री दोनों वसीयत बना सकते हैं। एक पर्दानशीं महिला भी वसीयत बना सकती है। लेकिन एक मुसलमान अपनी संपत्ति का एक तिहाई भाग से अधिक की वसीयत नही कर सकता है।
शरीयत कानून के अनुसार एक मुसलमान जो स्वस्थ मस्तिष्क का हो और 18 वर्ष या अधिक का हो वसीयत बना सकता है। इस प्रकार एक अवयस्क या पागल व्यक्ति वसीयत नही कर सकता है।
वसीयत मौखिक या लिखित बनाया जा सकता है। इसके लिए किसी तरह की औपचारिकता अपेक्षित नहीं है कि क्या और कैसे लिखना है। केवल यही आवश्यक है कि वसीयतकर्त्ता द्वारा इस आशय की स्पष्ट घोषणा हुई हो कि उसकी मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति का स्वामित्व लाभार्थी को प्राप्त हो जाएगा। वसीयत स्पष्ट, संक्षिप्त, और पठनीय होनी चाहिए।
संकेतों द्वारा वसीयत की जा सकती है। बोलने में असमर्थ बीमार व्यक्ति संकेतों से या सिर हिलाकर वसीयत कर सकता है। हालांकि ऐसे वसीयत को सिद्ध करना काफी कठिन हो जाता है।
वसीयत के लिए कोई विशेष प्रारूप नही है, हस्ताक्षर के सत्यापन की भी आवश्यकता नहीं है। वसीयत का रजिस्ट्री भी होना जरूरी नहीं होता है।
वसीयत चल या अचल दोनों तरह की संपत्तियों का जिसका अंतरण(transferable) किया जा सकता है और सम्पति जो वसीयतकर्त्ता के मरने के समय अस्तित्व में है, किया जा सकता है। किसी ओर की संपत्ति को वसीयत में नहीं दिया जा सकता है।
वसीयत वैसी संपत्तियों का भी बनाया जा सकता है जो वह वसीयत लिखने के समय कब्जे में नहीं है लेकिन मृत्यु के समय कब्जे में है।
एक मुसलमान को वसीयत करने की असीमित शक्ति नहीं होती है। उसे दो सीमाओं पर रहकर अपनी वसीयत करनी होती है पहला, लाभार्थी व्यक्ति से संबंधित सीमा और दूसरा, संपत्ति से संबंधित सीमा।
लाभार्थी व्यक्ति से संबंधित सीमा
शरीयत विधि के अनुसार एक मुसलमान अपनी पसंद के लाभार्थी/उत्तराधिकारी के लिए सिर्फ अपना 1/3 संपत्ति ही वसीयत में दे सकता है, बाकी ⅔ सम्पति उसके उत्तराधिकारी के लिए सुरक्षित रहेगी।
हाँ ! यदि किसी लाभार्थी या उत्तराधिकारी को ⅓ से अधिक दिया जाता है तो यह तब तक मान्य नही होगा जब तक दूसरे उत्तराधिकारी इसपर अपनी सहमति नही दे देते।
यह सहमति बताकर या आचरण द्वारा दिया जा सकता है। जैसे एक मामले में जहाँ 20-25 साल तक वसीयत पर उत्तराधिकारियों ने आपत्ति नहीं की तो कोर्ट ने माना कि उत्तराधिकारियों का आचरण ही सहमति है।
यह सहमति वैसे उत्तराधिकारियों द्वारा दिया जाना चाहिए जो वसीयतकर्त्ता की मृत्यु के समय उसके उत्तराधिकारी हो।
अब मान लेते है कि सभी उत्तराधिकारी सहमति नही देते है,ऐसी स्थिति में जिन्होंने सहमति दिया है उन्ही के हिस्से से ⅓ से ऊपर के भाग के वसीयत का भुगतान होगा।
हाँ ! एक जरुरी बात, एक बार सहमति देने के बाद इसे वापस नही लिया जा सकता।
कोई भी मुसलमान एक तिहाई संपत्ति से अधिक वसीयत नहीं दे सकता है। जब एक मुसलमान की मृत्यु हो जाती है तो मरने वाले व्यक्ति का यदि कोई ऋण है तो उसकी सबसे पहले अदायगी की जानी चाहिए। इसी तरह मृतक व्यक्ति के अंतिम संस्कार में जो खर्च होता है उसका भुगतान कर देना चाहिए। इन सब खर्चा को काटने के बाद, बची हुई संपत्ति में से एक तिहाई संपत्ति को वसीयत द्वारा दिया जा सकता है।
जैसे – एक मुसलमान अपने पीछे 16000 रुपये की संपत्ति छोड़कर मर जाता है। उसके कफन दफन का खर्च ₹1000 और कर्जा ₹6000 है, इस तरह ₹9000 शेष धनराशि बचती है। इसी बची हुई राशि का एक तिहाई यानी ₹3000 की वसीयत मान्य है। इस तरह किसी मुसलमान को अपनी संपत्ति का एक तिहाई से अधिक वसीयत द्वारा हस्तांतरण का अधिकार नहीं है और शेष दो तिहाई भाग वसीयतकर्त्ता के उत्तराधिकारियों को पहुंचना अनिवार्य है।
वसीयत तभी मान्य होगा जब वसीयतकर्त्ता ने अपनी स्वतंत्र इच्छा से वसीयत बनाया हो। यदि कोई व्यक्ति दबाव, अनुचित असर, कपट, धोखे के प्रभाव में आकर वसीयत बनाता है, तो ऐसी वसीयत शून्य होगी और ऐसे में लाभार्थी को संपत्ति में कोई भी अधिकार प्राप्त नहीं होगा। मान्य वसीयत के लिए यह भी जरूरी है कि लाभार्थी वसीयत की गई संपत्ति को स्वीकार करें लाभार्थी द्वारा वसीयतकर्त्ता के मरने पर वसीयत के प्रति अपनी स्वीकृति देना आवश्यक है।
मुस्लिम विधि वसीयत कर्ता को अपनी वसीयत को वापस लेने का असीमित अधिकार देता है वह किसी भी समय अपनी वसीयत को वापस ले सकता है या रद्द कर सकता है।
यदि वसीयतकर्त्ता वसीयत में किसी को निष्पादक नामांकित करता है तो निष्पादक के अधिकार और कर्तव्य भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के अनुसार होंगे।
वसीयत प्रोबेट लेने की आवश्यकता नहीं होती है।
सुन्नी और शिया में वसीयत
सुन्नी और शिया विधि में वसीयत संबंधी नियम कुछ अलग है जैसे अजन्मे व्यक्ति के मामले में सुन्नी विधि के अनुसार वसीयत लिखने की तारीख से 6 महीने के भीतर पैदा होने वाला बच्चा लाभार्थी समझा जाता है और वह वसीयत पर प्राप्त होने वाला लाभ के लिए सक्षम होता है।
जबकि शिया विधि में बच्चों के पैदा होने के संबंध में कोई समय निर्धारित नही है। यदि लाभार्थी का जन्म वसीयतकर्त्ता के मृत्यु की तिथि से गर्भधारण की अधिकतम अवधि में यानी 10 महीने में भी हो तो भी मान्य होता है।
सुन्नी में वसीयत किए जाने के समय लाभार्थी का अस्तित्व में होना जरूरी है, जबकि शिया में विधि के अंतर्गत वसीयतकर्त्ता के मरने के पहले लाभार्थी का अस्तित्व में होना चाहिए।
वसीयतकर्त्ता के हत्यारे को (जानबूझकर या अनजाने में की गई हत्या) सुन्नी विधि के अंतर्गत लाभार्थी नहीं बनाया जा सकता है जबकि शिया विधि के अंतर्गत यदि हत्या जानबूझकर की गई हो तो हत्यारे व्यक्ति को लाभार्थी नही बनाया जा सकता, लेकिन अनजाने में हत्या की गई हो तो लाभार्थी बनाया जा सकता है।
आत्महत्या करने वाले एक सुन्नी मुसलमान की वसीयत मान्य होती है। जबकि शिया मुसलमान यदि आत्महत्या करने के संबंध में कोई कदम उठाता है और इससे पहले उसके द्वारा वसीयत कर दी जाती है तो वह मान्य होता है लेकिन आत्महत्या का प्रयास करने के बाद की गई वसीयत की कोई मान्यता नहीं होती है। ऐसे मामले सामने आते हैं जहां मृत व्यक्ति ने पहले अपनी वसीयत कर दी और तब जाकर जहर खाया, यह निर्णय लिया गया कि वसीयत मान्य है।
सुन्नी विधि के अंतर्गत जब तक अन्य उत्तराधिकारियों द्वारा सहमति न दे दी गई हो किसी उत्तराधिकारी को वसीयत नहीं दिया जा सकता है। यह सहमति उत्तराधिकारी द्वारा वसीयतकर्त्ता के मर जाने के बाद की जानी चाहिए। एक सुन्नी मुसलमान उत्तराधिकारी के पक्ष में वसीयत नहीं कर सकता है। ऐसा कहा जाता है कि खुदा ने प्रत्येक व्यक्ति को उसका हिसाब दे दिया है इसलिए ऐसे व्यक्ति के पक्ष में वसीयत नहीं दी जा सकती है जो उत्तराधिकार प्राप्त करने का अधिकारी है। इसलिए सुन्नी मुसलमान सिर्फ गैर उत्तराधिकारी (लाभार्थी)को ⅓ संपत्ति बिना उत्तराधिकारियो की सहमति के वसीयत कर सकता है।
जबकि शिया विधि के अंतर्गत ऐसी सहमति जरुरी नहीं है। एक शिया मुसलमान किसी उत्तराधिकारी को या किसी भी गैर (लाभार्थी)को भी अपनी संपत्ति का एक तिहाई तक वसीयत द्वारा दे सकता है और ऐसा वसीयत दूसरे उत्तराधिकारियों की सहमति के बिना भी मान्य होता है, लेकिन यदि अपनी संपत्ति का एक तिहाई से अधिक वसीयत किसी उत्तराधिकारी के पक्ष में करना चाहता है तो ऐसे दूसरे उत्तराधिकारियों से सहमति आवश्यक होगी तभी वह मान्य होगा। ऐसी सहमति वसीयतकर्त्ता की मृत्यु के पहले या बाद में कभी भी दी जा सकती है।
जब एक लाभार्थी (सुन्नी) वसीयतकर्त्ता के पहले मर जाता है तो वसीयत खत्म हो जाती है। और वसीयत की सम्पति वसीयतकर्त्ता के पास वापस आ जाती है। लेकिन शिया मुसलमान के मामले में ऐसी स्थिति में वसीयत दान उत्तराधिकारियों के पास पहुंच जाता है। यदि लाभार्थी के कोई उत्तराधिकारी नहीं है तब वसीयत की संपत्ति वसीयतकर्त्ता को वापिस हो जाती है।
जब दो या अधिक व्यक्तियों के पक्ष में संपत्ति का 1/3 से अधिक भाग का वसीयत किया जाता है और उत्तराधिकारियों अपनी सहमति नहीं देते है,तो संपत्ति का बंटवारा इस तरह से होगा-
जमालुद्दीन खान सुन्नी मान्यता के हैं अपनी वसीयत में जमालुद्दीन खान A को 2 लाख 80 हजार और B को 2 लाख रुपए वसीयत में देते हैं। जमालुद्दीन खान की मृत्यु के बाद उनके कफन दफन के खर्च और कर्ज की अदायगी के बाद उनके पास केवल 432000 कि संपत्ति बचती है जिसका एक तिहाई यानी 144000 का वह वसीयत कर सकते थे, लेकिन उन्होंने A और B को 144000 की जगह कुल 4 लाख 80 हजार का वसीयत कर दिया। इसलिए अब 144000 को A और B के बीच अनुपातिक रीति से बांट दिया जाता है।
A को प्राप्त राशि :
280000 ×144000/480000=84000
B को प्राप्त राशि:
राशि:200000×144000/480000=60000